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चंदुआरी राज: भरको के अहीर-चौधरी जागीरदार

चंदुआरी राज (English: Chanduary Raj) भारतीय राज्य बिहार के तत्कालीन भागलपुर जिले (अब बांका जिला) में एक मध्ययुगीन जागीर और बाद में ब्रिटिश राज के दौरान जमींदारी इस्टेट थी। इसकी स्थापना 1599 में यादव-वर्मन परिवार के वंशज चतुर्भुज चौधरी ने की थी। इस जागीर का केंद्र भरको था।

उत्पत्ति

चंदुआरी के चौधरी मूलतः मझरौत अहीरों के ‘श्यामल’ या ‘सामल’ मूल (गोत्र) के हैं। ऐतिहासिक अभिलेखों और व्यापक वंशावली के आधार पर पता चलता है कि श्यामल मूल का नाम यादव-वर्मन वंश के शासक, महाराजाधिराज श्यामलवर्मन देव से लिया गया है, जिनसे चौधरी परिवार और उनके मूल के अन्य लोगों की उत्पत्ति हुई है।

कुछ विद्वानों द्वारा भरको (जो चंदुआरी जागीर का केंद्र था) की स्थापना का श्रेय सामलवर्मन देव को दिया जाता है। एन.के शुक्ला के अनुसार, सामलवर्मन से लेकर चतुर्भुज के समय तक भरको गांव प्रशासनिक और सैन्य संगठन का केंद्र रहा था। भरको को अंग क्षेत्र में यादवों का सबसे पुराने गांवों में से एक माना जाता है।

इतिहास

पारिवारिक रिकॉर्ड के अनुसार चतुर्भुज चौधरी, एक सम्मानित अहीर, ने 1599 में ‘चंदुआरी राज’ की स्थापना की थी। जिसके बाद चौधरियों ने अपनी वीरता और धन के आधार पर, लगभग चार सौ वर्षों तक इन क्षेत्रों पर वर्चस्व बनाए रखा। इन अभिलेखों के अनुसार, टप्पा चंदुआरी और चंदीपा क्षेत्र शुरू में जुझार राय के अधीन था। हालाँकि, जुझार द्वारा बानाहरा अदालत में भूमि कर का बकाया चुकाने में असमर्थता के कारण उसे कैद कर लिया गया, जिसके बाद चतुर्भुज नामक भरको के एक धनी अहीर ने जुझार राय का बकाया चुकाया, और भुगतान की रसीद प्राप्त की। जुझार राय उक्त धनराशि चुकाने में विफल रहे, जो उनकी ओर से चतुर्भुज द्वारा शाही खजाने में जमा की गई थी। इसलिए, जुझार ने 1599 ई. में चतुर्भुज को एक दस्तावेज निष्पादित किया, जिसमें चंदुआरी और चंदीपा नामक दोनों टप्पा चतुर्भुज को हस्तांतरित कर दिए गए। 1600 ईस्वी में चतुर्भुज ने मुगल सम्राट अकबर की मुहर के तहत अपने पक्ष में एक दस्तावेज जारी करवाया, जिससे उसे अपनी मुहर और हस्ताक्षर का उपयोग करके अपने क्षेत्र के मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार मिल गया। इन टप्पों को खरीदने से पूर्व चतुर्भुज के पास टप्पा भरको व एक अन्य टप्पा का हिस्सेदारी थी, जो उनके पूर्वजों से प्राप्त हुई थी। इन सभी टप्पों को मिलाकर उन्होंने ‘चंदुआरी राज’ की स्थापना की, जिसका अधिपत्य आज के बांका जिले के उत्तर-पश्चिम क्षेत्रो पर था, जिसमें अमरपुर, शम्भूगंज, फुल्लीडुमर ब्लॉक के अलावा बेलहर ब्लॉक के कुछ हिस्से भी शामिल थे।

मुग़लों द्वारा चतुर्भुज को ‘चौधरी’ की उपाधि दी गई, तब से उनके वंशजों ने यह उपाधि बरकरार रखी है। उन्होंने 1601 ई. से 1611 ई. तक चंदुआरी राज की कमान संभाली और उनकी देखरेख में पंद्रह मील के दायरे में कई गाँव विकसित हुए, जो यादवों की भाषा और संस्कृति की विशिष्टता से चिह्नित थे। चतुर्भुज के बाद, उनके बेटे बीरसेन चौधरी का राज शुरू हुआ और उन्होंने 1612 ईस्वी से 1627 ईस्वी की अवधि के दौरान भरको से शासन किया। बीरसेन के पुत्र जमुना चौधरी ने कार्यभार संभाला और 1628 ई. से 1639 ई. तक शासन किया। जमुना के पुत्र हेलमणि चौधरी ने 1640 ई. से 1656 ई. तक कार्यभार संभाला। उनकी दो पत्नियाँ थीं और उन्हें कई पुत्रों का आशीर्वाद प्राप्त था। पहली पत्नी से खेमकरण चौधरी का जन्म हुआ, जबकि दूसरी पत्नी से तीन बेटे रणभीम चौधरी, रघु चौधरी और अनुप चौधरी हुए। उन्होंने जमींदारी का बंटवारा कर दिया और अपने बेटों के बीच हिस्सेदारी बांट दी। ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि रणभीम चौधरी और उनके दो भाई भरको से पहाड़ी नदी बिलासी के पूर्वी तट पर स्थित गोरगामा में स्थानांतरित हो गए।

  • मुग़लों के खिलाफ विद्रोह – 1656-57 में, हेलमनी चौधरी ने मुग़लों के खिलाफ विद्रोह किया था। यह मुग़ल सिंहासन के उत्तराधिकार के लिए शाहजहां के पुत्रों के बीच संघर्ष का दौर था। गृहयुद्ध के इस दौर में बिहार में जो भ्रम और अराजकता फैल गयी थी, उसका लाभ उठाते हुए हेलमनी ने भी बगावत छेड़ दी। बिहार के सूबेदार मुग़ल शहज़ादा शाह शुजा ने खड़गपुर के राजा बहरोज सिंह को विद्रोह दबाने के लिए नियुक्त किया। राजा बहरोज के साथ संघर्ष में चंदुआरी राज की सनद नष्ट हो गई, हालांकि शाह शुजा बादशाह बनने में असफल रहे। जिसके बाद सैयद अजमेरी ने हेलमानी के पुत्र खेमकरण चौधरी के नाम पर एक नई सनद जारी की।

हेलमानी के पुत्र खेमकरण चौधरी चंदुआरी के सरदार बने और उन्होंने 1689 ई. तक शासन किया। खेमकरण के पुत्र जय नारायण चौधरी उनके उत्तराधिकारी बने और 1690 ई. से 1740 ई. तक कार्यभार संभाला। जय नारायण के बाद उनके बेटे हेमनारायण चौधरी ने नेतृत्व संभाला। अपनी धार्मिक निष्ठा के लिए प्रतिष्ठित श्री हेमनारायण चौधरी ने 1741 ई. से 1775 ई. तक शासन किया। 1760 ई. में हेमनारायण और धनाराम चौधरी ने विष्णु भगवान की पूजा के लिए मैनमा गांव, टप्पा चंदीपा, सरकार मुंगेर में 1233 बीघे और 5 कट्ठा जमीन दिया था। धार्मिक प्रकाशन भ्रमरसीला मंडलेश्वर के अनुसार, भागलपुर के चंपानगर में चौकीमंदिर की स्थापना 1757 में स्वामी गोपालराम द्वारा की गई थी, जिसमें भक्त हेमनारायण चौधरी द्वारा स्वामीजी को भूमि दान की गई थी। समकालीन अभिलेखों में, हेमनारायण चौधरी को ‘गोपवंशभूषण’ अर्थात गोप जाति का आभूषण के रूप में वर्णित किया गया है।

  • औरंगजेब के साथ युद्ध – धन्नाराम चौधरी शोभाराम चौधरी के पुत्र और हरनारायण चौधरी के पोते थे। उन्होंने जयनारायण चौधरी और उसके बाद उनके बेटे हेमनारायण चौधरी के अधीन सैन्य प्रमुख के रूप में कार्य किया। वह औरंगजेब के साथ युद्ध के दौरान मराठों की सहायता के लिए 3000 की सेना के साथ दक्कन गए थे। धनाराम चौधरी के दक्कन से भरको वापस लौटने पर, उन्होंने दक्षिण में औरंगजेब के साथ युद्ध में मारे गए अपने अनुयायियों के वंशजों के भरण-पोषण के लिए 1705 ई. में शम्भूगंज और मिर्ज़ापुर के पास मौजा सोनपई और रुतपई में 2,200 बीघे जमीन दी।
  • अंग्रेजों के साथ संबंध – 1765 में, बक्सर के युद्ध में मिली हार के बाद मुगल सम्राट ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बिहार और बंगाल प्रांतों में कर इकट्ठा करने का अधिकार दे दिया। परिणामस्वरूप, चंदुआरी सहित सभी अन्य राज व जमींदारियाँ कंपनी शासन के अधीन आ गईं। 1793 के स्थायी बंदोबस्त अधिनियम के बाद, राजा, जागीरदारों या जमींदारों को एक निश्चित वार्षिक लगान के बदले में भूमि का स्वामित्व प्रदान किया गया और उन्हें अपनी संबंधित जमींदारी इस्टेट के आंतरिक मामलों में स्वतंत्र छोड़ दिया गया। ऐतिहासिक अभिलेख ब्रिटिश काल के दौरान भी भरको के चौधरी के प्रभुत्व की पुष्टि करते हैं, जैसा कि 16 जुलाई, 1780 के कलेक्टर रिकॉर्ड से प्रमाणित होता है। कलेक्टर ने वॉरेन हेस्टिंग्स को रिपोर्ट दी: “खड़गपुर में राजा मोज्ज़फर अली के बेदखली के बाद से, पूरा भागलपुर और खड़गपुर क्षेत्र चौधरियों के अधीन था, और कुछ स्थानों पर तालुकदारों और मंडलों के अधीन था”। कलेक्टर ने आगे सिफारिश की कि यह क्षेत्र, फिलहाल, चौधरियों के प्रबंधन में ही रहना चाहिए। ब्रिटिश काल मे चौधरी परिवार को न केवल जमींदारी के अधिकार बल्कि कुछ न्यायिक अधिकार भी प्राप्त थे। 3 जुलाई, 1917 को भागलपुर के न्यायाधीश द्वारा चौधरियों के नाम जारी किये गए हुकुमनामा से पता चलता है कि उन्हें न्यायिक अधिकार प्राप्त थे और उन्हें उस क्षेत्र में शांति और व्यवस्था बनाए रखने का आदेश दिया गया था। ये वृत्तांत बताते हैं कि चतुर्भुज के वंशज किस हद तक धनी और शक्तिशाली होने के कारण अकबर के शासनकाल से लेकर ब्रिटिश काल तक राज्य में विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति में सुरक्षित थे।

हेमनारायण के पुत्र ताराचंद चौधरी एक शक्तिशाली शासक के रूप में 1776 ई. से 1780 ई. तक इस क्षेत्र पर प्रभुत्व बनाए रखा। उनके पुत्र दीपचंद चौधरी (1780-1820) के समय में जमींदारी भूमि को तीन बार बंदोबस्त किया गया (पांच साल, दस साल के लिए और फिर स्थायी बंदोबस्त )। 1793 के स्थायी बंदोबस्त के समय सभी मूल कागजात चौधरी परिवार के पास मौजूद थे। दीपचंद के उत्तराधिकारी बाबू होरिल चौधरी बने, जिनकी निःसंतान मृत्यु हो गई और जिसके बाद जयनारायण चौधरी के छोटे भाई हरनारायण चौधरी का वंसजो का शासन शुरू हुआ। ब्रिटिश अदालत के आदेश पर, जमींदारी इस्टेट बाबू फतहचंद चौधरी को सौंप दी गई। उनके वंसजो ने 1947 में भारत की आजादी तक कार्यभार संभाला।

चतुर्भुज की 13वी पीढ़ी में जन्मे बाबू रघुनंदन चौधरी चंदुआरी राज के अंतिम जमींदार थे। उन्होंने मधेपुरा के अहीर-मंडल जमींदारों के साथ मिलकर ‘यादव महासभा’ के विभिन्न आयोजनों में सक्रिय भूमिका निभाई।

1947 में स्वतंत्रता के बाद, राज्य सरकार ने 1949 में ‘बिहार जमींदारी उन्मूलन अधिनियम’ लागू किया, जिसके बाद ज़मींदारी प्रथा समाप्त हो गई। जमींदारी उन्मूलन के बावजूद, चौधरियों के पास काफी जमीन था। भूतपूर्व बड़े जमींदार होने के नाते, भरको और उसके आसपास के क्षेत्रों के दैनिक मामलों में आज भी चौधरियों का एक प्रमुख स्थान है।

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