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टैबु सब्जेक्ट में अहम संदेश देती हैं कहानी रबरबैंड की 

बैनर : मून हाउस प्रोडक्शन 

कलाकार : प्रतीक गांधी , अविका गौर और मनीष रायसिंघानी 

निर्देशक : सारिका संजोत 

निर्माता : सारिका संजोत , सह  निर्माता : नरेश दूदानी 

अवधि : १२० मिनट 

रेटिंग : ⭐⭐⭐ 1/2 “कहानी रबर बैंड की” फ़िल्म में कॉमेडी के साथ सोशल मैसेज 

आकाश चौधरी (मनीष रायसिंघन ) और काव्या पटेल (अविका गौर ), नई नई शादी होती है,   शादी के बाद की प्लानिंग  करते हैं परंतु उस समय एक परेशानी आ जाती जब काव्या  प्रोटेक्शन  के  बाद भी प्रेग्नेंट  हो जाती है, उस के बाद काव्य और आकाश कॉन्डम कम्पनी पर केस दर्ज कर देते है। फ़िल्म  भारतीय समाज  में कंडोम, सेक्स और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों  के बारे में बात भी करती  है।

 “कंडोम ख़रीदने वाला छिछोरा नहीं जेंटलमैन होता है,” यह लाइन कहानी रबर बैंड की, के बारे में बहुत कुछ बताती है। पहली बार निर्देशक बनी सारिका संजोत, ने एक ‘सामाजिक रूप से’ फिल्म तैयार की है। हालाँकि, इस खास मैसेज को और ज्यादा चालाकी के साथ दिखाया जा सकता था। सेक्स के दौरान सुरक्षा पर चर्चा करना पाप नहीं है; हम पहले भी इस तरह की कई फिल्में देख चुके हैं, 120 मिनट का यह ड्रामा- जिसमें कंडोम को ‘रबड़ बैंड’ कहा जाता है, लेकिन इसमें लीड, काव्या और आकाश के बारे में एक अलग कहानी है, जो सुरक्षा का उपयोग करने के बावजूद गर्भवती हो जाती हैं।

यह फिल्म ‘सुरक्षित सेक्स’ पर चर्चा की अहमियत को बताने के लिए नाटक और व्यंग को मिक्स करता है। फिल्म का पहला भाग अच्छा है जो ऑडियंस को बांधे रखता है, दूसरा भाग थोड़ा बहुत खींचा हुआ है। परंतु अदालती लड़ाई को मनोरंजक तरीके से दिखाया है और भारतीय घरों में कंडोम, सेक्स और सुरक्षा के महत्व को बताने के बाद फिल्म महत्वपूर्ण संदेश के साथ खत्म होती है।

मनीष रायसिंघन और अविका गोर की ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री प्यारी है। फिल्म में प्रतीक गांधी को नरेंद्र त्रिपाठी, उर्फ आकाश के सबसे अच्छे दोस्त ‘नन्नो’ के रूप में भी दिखाया गया है, उन्होंने कानून की पढ़ाई की है, लेकिन अपने पिता के साथ एक मेडिकल शॉप में काम करते, उनकी भूमिका छोटी जरूर है परंतु दमदार हे क्योंकि कहानी का मुख्य फोकस यंग किरदार और उनकी समस्याएं हैं। दिग्गज अदाकारा अरुणा ईरानी को लंबे समय के बाद बड़े पर्दे पर वापसी की है।

कहानी बनारस शहर की है, जिस फिल्म में खूबसूरती से कैद किया गया है। फारुख मिस्त्री की सिनेमैटोग्राफी शहर की  गलियों, घाटों और पड़ोस की खोज के लिए जानी जाती है।

दर्शकों को देश में इस तरह के सब्जेक्ट की फ़िल्मों से सीखने को मिलता है, इस फिल्म ने अपनी बात को रखने के बेहतर तरीके खोजे, यह फिल्म दर्शकों के दिल में अपनी जगह बनाने में कामयाब होगी ।

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